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Wednesday 2 May 2012

साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक 2011 - संविधान में फेरबदल की साजिस - प्रो॰ मधुकर श्याम चतुर्वेदी

साम्प्रदायिक तथा साम्प्रदायिक हिंसा के प्रसार की रोकथाम तथा साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार लोगों को प्रभावी प्रतिकारात्मक कार्यवाही के लिए आश्वास्त करने के घोषित उद्देश्य से प्रस्तावित यह विधेयक प्रथम दृष्टता ही स्वयं साम्प्रदायिक मंतव्यों का अग्रसर करता हुआ प्रतीत होता है।

अधिनियम की धारा में ग्रुप शब्द को परिभाषित करते हुए यह घोषित किया गया है कि उसमें भारत संघ के किसी राज्य में धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक तथा अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां सम्मिलित मानी जाएंगी। इसी प्रकार धारा 3 में परिभाषित किया गया है कि रिविक्टिम (शिकार) भी वही व्यक्ति माना जायेगा जो कि गु्रप के रुप में परिभाषित किसी समुदाय का सदस्य होगा।

गु्रप या समूह की यह परिभाषा तर्क की किसी कसौटी से संगत नहीं है। यह समूह शब्द की भाषिक तार्किक अथवा विधिक विवक्षाओं की स्पष्टतः अवहेलना है। सामान्यतः भी, और विशिष्टितः साम्प्रदायिक हिंसा और द्वेष के संदर्भ भी यह किस मापदंड से उचित ठहराया जा सकता है कि अल्पसंख्यक समूह ही समूह होंगे और अन्य समुदायों का समूह नहीं माना जाएगा|

जब इस परिभाषा को इस अधिनियम के समस्त प्रावधानों पर लागू किया जाएगा तो उसका सटीक प्रभाव यह होगा कि किसी अल्पसंख्यक समुदाय अथवा कारित हिंसा तो अपराध होगी किंतु इससे भिन्न समुदाय जनजाति के सदस्य के विरुद्ध किसी विद्वेषकारी कथन अथवा कारित हिंसा तो अपराध होगी किंतु इससे भिन्न समुदाय के प्रति व्यक्त की गई दुर्भावना अथवा कारित की गई हिंसा इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध की श्रेणी में नहीं आएगी। अधिनियम की यह परिभाषा स्वयं धर्म स्वातंत्र्य के अधिकार की सांविधानिक योजना की अवहेलना है क्योंकि इसके द्वारा साम्प्रदायिकता को क्षमता की अपेक्षा स्वयं साम्प्रदायिक पहचान के आधार पर समझने और समझाने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि गु्रप विभेदकारी साम्प्रदायिक मंतव्य पर आवरण डालने तथा उसके आपत्तिजनक स्वरूप को किंचित कमतर प्रतीत करवाने के उद्देश्य में सम्मिलित किया गया है अन्यथा अधिनियम की योेजना में इन वर्गों का उल्लेख प्रासंगिक नहीं लगता क्योंकि इन वर्गों के विरुद्ध अत्याचार की घटनाओं की रोकथाम के लिए पूर्वतः ही एससी/एसटी एट्रोसीटीज एक्ट अस्तित्व में है। यदि ऐसा प्रतीत होता कि इन वर्गों के विरुद्ध किसी हिंसा या अत्याचार के शमन के लिए उक्त अधिनियम के प्रावधान पर्याप्त नहीं है तो उसका निराकरण संबंधित अधिनियम में संशोधन करके किया जा सकता था इसके लिए संविधान की मूल योजना में ही एक वर्ग के रूप में चिह्नित एस.सी./एस.टी. को साम्प्रदायिकता के आधार पर किए जानेवाले किसी वर्गीकरण का हिस्सा बनाया जाना उपयुक्त नहीं था। यह न केवल अनावश्यक अपितु अनर्थकारी है।

संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रस्थापित विधि के समक्ष समता और विधि के समान संरक्षण के अधिकार की यह अनिवार्य विवक्षा है कि विधि निर्माण और विधि के क्रियान्वयन में अतर्कसंगत आधारों पर कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। अतर्कसंगत आधारों के अभिकल्पन में विधायिका और कार्यपालिका के असीमित स्वविवेक का परिहार करते हुए अनुच्छेद 15 में वे आधार भी व्यापक रूप से गिना दिए गए हैं जिन्हें प्रथम दृष्टता अतर्कसम्मत माना जाएगा। इन आधारों पर पंथ को भी सम्मिलित करते हुए उसके आधार पर भेदभाव का स्पष्टतः निषेध किया गया है। किसी विधि की परिभाषा में अधिनियम के प्रावधान द्वारा की गई संरक्षा की परिधि में और आपराधिक दायित्व के निर्धारण के संबंध में केवल धर्म/पंथ के आधार पर वर्गीकृत किसी समुदाय विषेश के सदस्यों को सम्मिलित किया जाना विधि के शासन की प्रकट अवहेलना है। इस भेदभावपूर्ण परिभाषा का सहज प्रभाव यह है कि इस अधिनियम के आलोक में किसी भाषाई अथवा पांथिक अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध किया गया दुष्प्रचार अथवा हिंसा ही अपराध की श्रेणी में सम्मिलित किसा जाएगा। यह प्रावधान स्वयं में साम्प्रदायिक सौहार्द की अपेक्षा से संगत हो ही नहीं सकता क्योकि इसमें जो प्रकट भावना है वह यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय से भिन्न समुदायों के प्रति व्यक्त की गई दुर्भावना व कारित की गई हिंसा साम्प्रदायिक हिंसा नहीं मानी जायेगी। यह तर्क से परे है कि किस प्रकार साम्प्रदायिक मंतव्यों और साम्प्रदायिक कृत्यों को भी अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक के वर्गीकरण के आधार पर समझा जा सकता है।

अधिनियम में ऐसे अनेक प्रावधान है जो शासन के इस मंतव्य को रेखांकित करते हैं कि यह अधिनियम साम्प्रदायिक सौहार्द के संवर्द्धन अथवा साम्प्रदायिक विद्वेष व हिंसा की रोकथाम के उद्देश्य से नहीं, अपितु पांथिक अल्पसंख्यकों को अतिरिक्त संरक्षण देकर उन्हें एक वर्ग के रूप में संतुष्ट करने के प्रयास से प्रेरित है। अधिनियम की धारा 21 में साम्प्रदायिक सौहार्द और न्याय के संदर्भ में एक राष्ट्रीय अधिकरण के गठन का प्रावधान है उसमें भी यह स्पष्ट कर दिया गया है कि उसके कुल सात सदस्यों में से कम-से-कम चार अल्पसंख्यक समुदायों से संबंधित ही होंगे।

ध्यान देने योग्य यह है कि स्वयं में धर्म स्वातंत्रय के अधिकार के सन्दर्भ में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के वर्गीकरण की किसी भी संभावना का स्पष्टतः निषेध किया गया है। अधिनियम में साम्प्रदायिकता की जो परिभाषा दी गई है उसमें भी किसी अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय के सदस्य होने को ही आधार बनाया गया है। यह ध्यान देने योग्य है कि पंथ विषेश की सदस्यता के आधार पर भारत के नागरिक समूह का अल्पसंख्यक अथवा बहुसंख्यक के आधार पर साम्प्रदायिकता के संदर्भ में वर्गीकरण संविधान में स्पष्टतः निषेध किया गया है। साम्प्रदायिकता की रोकथाम और देश के सेकुलर तानेबाने( जैसा कि अधिनियम में साम्प्रदायिकता की परिभाषा के क्रम में अंकित किया गया है) को क्षति पहुंचाने के संदर्भ को यदि मूल अधिकारों के आलोक में समझाने का प्रयास किया जाए तो उसका एकमात्र सन्दर्भ धर्म स्वातंत्र्य के मूल अधिकार में खोजा जा सकता है।

यह ध्यान देने योग्य है कि अनुच्छेद 25 धर्म स्वातंत्र्य धर्म के व्यवहार और प्रचार करने की स्तंत्रता के सन्दर्भ में समान हक को रेखाकिंत करता है। अनुच्छेद 25 की शब्दावली में समान हक शब्दों का प्रयोग संविधान के इस मतंव्य को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है कि धार्मिक अधिकारों के संदर्भ में संविधान अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के आधार पर विभेद या अतिरिक्त संरक्षण को अस्वीकार करता है। संविधान में भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों का एक प्रथक वर्ग के रूप में अभिज्ञान केवल शिक्षा और संस्कृति के अधिकार के संदर्भ में किया है। यह अत्यन्त आपत्तिजनक है कि इस अधिनियम के द्वारा संविधान द्वारा प्रत्याभूत मूल अधिकारों की योजना में ही उलटफेर किये जाने का प्रयास किया जा रहा है तथा अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के वर्गीकरण को शिक्षा और संस्कृति से हटाकर धर्म स्वातंत्र्य के अधिकार के संदर्भ में प्रविश्ष्ट करवाने का प्रयास किया जा रहा है। यदि धर्म स्वातंत्र्य के अधिकार में समानता की अपेक्षा अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक होने के आधार पर कोई विशिष्ट वर्गीकरण अभिप्रेत है तो शासन को इसके लिए व्यापक बहस आमंत्रित करनी चाहिए और इतना साहस दिखाना चाहिए कि पंथ निरपेक्षता की उनकी दृष्टि में धर्म स्वातंत्र्य के अधिकार का वर्तमान स्वरूप संतोषजनक नहीं है और उसमें अल्पसंख्यक के लिए अतिरिक्त संरक्षण की व्यवस्था किया जाना आवश्यक है।

अधिनियम के समस्त प्रावधानों का इस मूल प्रस्थापना के संदर्भ में परीक्षण किये जाने की आवश्यकता है कि क्या धर्म स्वातंत्र्य के अधिकार के संदर्भ में साम्प्रदायिकता की परिभाषा साम्प्रदायिक हिंसा के लिए दायित्व अथवा अनुतोष की परिगणना के संबंध में भारत के नागरिकों में अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक के आधार पर विभेद किया जाना संविधान की मूल भावना तथा पंथ निरपेक्षता की संविधान में घोषित मूल योजना के अनुरूप माना जा सकता है|

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